Subscribe Us

पूर्वपीठिका से निरंतर...!


 *पुर्वपिठीकासे* *निरंतर* ...


           

             कुछ समयपुर्व जूलई २०२२ में ' *टीएमए* *पाई'* मामले में सुप्रीम कोर्ट की 11 सदस्यीय बेंच का फैसला सुनाया गया है. इस मामले में धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के संबंध में कई संदिग्ध मुद्दों को स्पष्ट किया गया था। संदर्भित याचिका में, यह उल्लेख किया गया है कि यहूदी, बहाई, हिंदू धर्म के अनुयायी कश्मीर, पंजाब, लद्दाख सहित उत्तर पूर्वी राज्यों में अल्पसंख्यक हैं। ऐसे स्थानों की तुलना में, राष्ट्रीय स्तर पर बहुसंख्यक हिंदू जैसे धार्मिक समुदाय सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से प्रभावशाली नहीं हैं और ऐसे राज्यों में संख्यात्मक रूप से हीन हैं। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया है कि केंद्र सरकार के अलावा, जिसके पास राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 के कार्यान्वयन में एकतरफा शक्ति है, राज्य स्तर पर राज्य प्रशासन द्वारा अल्पसंख्यकों की पहचान बरकरार रखी जाएगी। और यह भी राज्य की जिम्मेदारी होगी। इस अवसर पर भाषायी एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों तथा बहुसंख्यकों को स्थानीय अल्पसंख्यक समूह में शामिल करने की दृष्टि से संविधान के अनुसार विकास एवं परिभाषा के सम्बन्ध में न्यायोचित दिशा प्राप्त करने में परस्पर विरोधी समुदाय के लिए सहायक सिद्ध होगा।

        बंजारा समाज अभी भी ऐसी उत्पीड़ित स्थिति में है कि वह खुद को नहीं पहचानता कि वह किस समूह में आता है। हम बहुसंख्यक हैं या अल्पसंख्यक, क्या है हमारी संवैधानिक पहचान..? हम वाकई अपराधी थे..?संविधान के मुख्य निर्माताओं ने भी ऐसा सोचा होगा। वरना गांव में भेदभाव को खत्म करने के लिए भेदभाव सहने वालों को विशेष आरक्षण के साथ संवैधानिक मान्यता दी जाती है, जबकि गांव के बाहर अमानवीय जीवन को अपराधी की तरह रखा जाता है, समाज को सामाजिक जीवन की मुख्यधारा में रखे बिना..! मानवीय मूल्यों को कुचलने वाले संविधान निर्माताओं ने इस जंगल में रहने वाले समाज के बुनियादी मानदंड क्यों नहीं देखे..? लेकिन नहीं, उन्होंने अपने ही करीबी लोगों को संवैधानिक मूल कवचकुंडल दिया। लेकिन उन्होंने उत्पीड़ित लोगों को अमानवीय जीवन जीने वाले अपराधियों के रूप में देखा।

         अल्पसंख्यक समूह में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 के खंड (2) सी के तहत केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित समुदाय शामिल है। संविधान में अल्पसंख्यक की कोई शाब्दिक परिभाषा नहीं है। हालाँकि, संविधान धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को मान्यता देता है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 के अनुसार कल्याण मंत्रालय भारत सरकार द्वारा 23 अक्टूबर 1993 को जारी एक राजपत्र अधिसूचना के माध्यम से पांच धार्मिक समुदायों मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी, को अल्पसंख्यक समुदायों के रूप में अधिसूचित किया गया था। जुलाई 2014 में, जैन समुदाय को भी इसमें शामिल किया गया..! 2006 से, केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्रालय से अल्पसंख्यक मामलों का एक अलग मंत्रालय स्थापित किया गया है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक भारत में इन छह धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों की आबादी 23.37 करोड़ है। जो देश की जनसंख्या का 19.30% है। जिसमें मुस्लिम समुदाय देश का 17. 22 करोड़ याने देश के लोकसंख्या के प्रमाण में 14.23 प्रतिशत, ईसाई 2.78 करोड़ देश का 2.30 प्रतिशत, सिख समुदाय 2.08 करोड़ देश का 1.72 प्रतिशत, बौद्ध 0. 84 करोड़ 0. 70%, जैन समुदाय 0. 45 करोड़ 0 37% है l जबकि पारसी समुदायों की संख्या जनगणना में नहीं दिखाई गई है, लेकिन केंद्र सरकार के कार्यालय द्वारा दर्ज की गई यह सांख्यिकी 57264 है, याने देश का 0.006% है। वैश्विक स्तर पर इनमें से कुछ समुदाय संख्यात्मक रूप से बहुसंख्यक हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उनकी संख्यात्मक स्थिति उन्हें अल्पसंख्यकों की श्रेणी में रखती है। अधिसूचित अल्पसंख्यक होने के कारण इस समुदाय के लिए विशेष पंजीकरण लिया जाता है। इसमें स्वतंत्र मंत्रालय से विकास तथा संवर्धनकी कई योजनाएं भी शामिल हैं। प्रचुर मात्रा में धन उनके लिए आरक्षित में उपलब्ध कराया जाता है। प्रधानमंत्री के नए 15 सूत्री कार्यक्रम में अल्पसंख्यकों के लिए विशेष उपयोजनाभी है। सरकार द्वारा प्रधानमंत्री जनविकास कार्यक्रम, नई मंजिल, हुनर हाट, नई उड़ान, उस्ताद योजना, नया सवेरा, राष्ट्रीय फेलोशिप आदि सहित कई पहलूवोको लागू किया जा रहा है। वर्तमान में इस अधिसूचित समुदाय की जनसंख्या 26 करोड़ से अधिक है। इनमें से कुछ अधिसूचित समुदाय सार्वभौमिक रूप से बहुसंख्यक धार्मिक समुदाय हैं। लेकिन स्थान की दृष्टि से उन्हें यहां अल्पसंख्यक माना जाता है। निसंदेह यह उस समुदाय का अधिकार होगा..! लेकिन मेरा समुदाय कीस स्थिती में असल में क्या है ..? मेरे समुदाय कि एक पहचानके मानदंड क्या हैं ..? इस व्यवस्था में सभिको इंसाफ है, चाहे इधर से हो या बाहर से..! सिर्फ राष्ट्र कि विरासत संजोनेवालोके लियेहि नही..! संविधान और कानूनका राज/शासन होनेके बावजुद फिर भी क्यों मेरी परछाई मुझसे दूर रहती है..? अस्तित्वसे परछाई विलग क्यों है..? मेरा अस्तित्व यहां अल्पसंख्यक नहीं हैl  राष्ट्रीय स्तर पर संवैधानिक नहीं हैl अगर हम बहुसंख्यक हैं, तो भाषाई बहुमत के रूप में हमारी स्थिति क्यों नहीं है..?

         मैं और मेरा बंजारा समाज इस देश की व्यवस्था में कहाँपर अपना अस्तित्व देख पायेगा..? दस्तावेजों पर मेरा धर्म हिंदू लिखा हुआ है, यह क्यों और कैसे लिखा गया है..? इस पर गौर कारे तो फिर इस व्यवस्था के खोखलेपण कि अनुभूती होगी, जो विवादास्पद वास्तविकता का उदय होकर व्यवस्था कि कालीनीती प्रकट होगी l इस विषयमें बंजारा समाजको उनका उत्पिडन करते हुये मजबूरभी किया नाजाये l यहां हिंदू बहुसंख्यक हैं, बहुसंख्यक हिंदुओं को राष्ट्रीयस्तर अल्पसंख्यकोंकि तर्ज पर, तथा बहुसंख्याक होनेसे जाती और जनजाति जैसा विशेष न्याय नहीं दिया जाता। यदि मेरा बंजारा समुदाय बहुसंख्यक है, तो यह कितना दुखद है कि इस प्रणाली में मेरे बंजारा समुदाय का कोई एकीकृत सांख्यिकीय डेटा नहीं है..! बहुसंख्यक बंजारा भाषीकोकि एक बोलीभाषा होथे हुयेभी भाषा को संविधानिक मूल्य नही l अगर हम बहुसंख्यक नही, राज्य राज्यमे बटे हुये अल्प्संख्यी है तो फिर इस भाषिक तथा धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायकी पहचान क्यो नही है..? राष्ट्रस्तरकी हमारी पहचान संविधानिक मुल्यसे परीवेषित नहीl बंजारा समुदाय का सांस्कृतिक और समग्र मूल्य इसके मूल निवासियों का है। जो लंबे समय से धारा से अलग था।वास्तवमे  खानाबदोश जंगल में रहने वाले समुदायों को जानबूझकर धारा से दूर रखा गया था। बंजारा समुदाय राष्ट्र का प्राचीन, सभी जनजाती मानदंडों का प्राकृतिक भाग है l जो एक अमुल्य विरासत, महान मूल्य की नस्ल और भारतीय सांस्कृतिक विरासत का संरक्षक,  भिन्न शब्दोमें हकदार,मालिक, नायक है। लेकिन इसे आइसोलेट कर दिया गया है। जब बाहरी समाज के साथ भी यहां सब जायज है। हमें क्यो भला नाजायज बरतव याह व्यवस्था फेती हैl आदिम तत्व के इस बंजारा समुदाय के साथ धोखा क्यों..? बंजारा समुदाय जिसकी राष्ट्रीय स्तर पर अधिक जनसंख्या और एकभाषी पहचान है जबकि उसे बहुसंख्यकों की आड़ में रखा गया। लेकिन इसके बावजूद 2011 की जनगणना मेंभी बंजारा समाज के इस एक मूल्य पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया..? मूलतः  यह प्रणाली हमारी राष्ट्रीय भाषाई, प्राकृतिक जनजातीकी पहचान, तथा जनसंख्या की भौगोलिक दृष्टि से सांख्यिकीय पहचान दोनों को मिटाना चाहती है। वह व्यवस्था जिसने संविधान के बाद भी समाज को न्याय नहीं दिया। यदि हम हिंदू धर्म की एक प्रलेखित उप-जाति हैं, तो क्या हम हिंदू के रूप में बहुसंख्यक हैं? यदि हम हिंदू बहुसंख्यक होथे, तो क्या बहुसंख्यक बंजारा समाजकी भाषाई पहचान समाज से अलग-थलग रह पाती? एक संवैधानिक राष्ट्र में हमारी पहचान अलग क्यों है? जब संविधान समान मूल्यों का समर्थन करता है।

      इस सुप्रीम कोर्टके फैसलेके मद्देनजर 'पाई' मामले में कहा गया है, कि भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपने भाषाई और धार्मिक हितों की रक्षा करने का अंतर्निहित अधिकार है। मामले में भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों के मुद्दे के अनुसार इस छिपे हुए गर्भित मुद्देको नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. भारत के निवासी किसी भी राज्य में जनसंख्या की दृष्टि से भाषिक तथा धार्मिक अल्पसंख्यक हैं। महाराष्ट्र में कन्नड़ लोग प्रादेशिक जनसंख्या तर्जपर अल्पसंख्यक हैं, और कर्नाटक में मराठी समूह्के लोग प्रादेशिक जनसंख्या तर्जपर अल्पसंख्यक हैं। इसके अनुसार, स्थानीय राज्यों को भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए उपचारात्मक उपायों की योजना बनाने की आवश्यकता है। इस संदर्भ में भारत का संविधान अनुच्छेद 29, अनुच्छेद 30 और अनुच्छेद 350 'बी' के तहत अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करता है। इसका खंड 30 विशेष रूप से भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए है।अनुच्छेद 29 नागरिकों के समूह (नागरिकों का वर्ग) के लिए है। यह खंड (अनुच्छेद 29) नागरिकों के किसी भी समूह पर लागू होता है। जो अपनी अलग भाषा, लिपि, संस्कृति की रक्षा करने में मदद करता है। अनुच्छेद 350 'बी'  महामहिम राष्ट्रपति की विशेष शक्तियों के माध्यम से अल्पसंख्यक समूहों की रक्षा करता है। विशेष रूप से, यह खंड 7वें संविधान संशोधन, 1956 के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अधिकारियों की नियुक्ति का प्रावधानभी करता है।

            इस फैसले के अनुसार बंजारा समुदायको जागृत होकर अपने अस्तित्व कि परिभाषा संविधानिक मूल्यआधारित पाह्चाननी चाहिये l हमें अपने अस्तित्व की जांच करनी चाहिए। हमारा स्थान इस शातीर व्यवस्थाकी नितीयोमें कहापर विहित है? एक भाषाई और एक सांस्कृतिक मूल्य की धरोहरके हमारे प्राचीन, प्राकृतिक समाज की एक समान मान्यता क्यों नहीं है..? स्वाभाविक है कि प्राकृतिक समृद्ध पहचान के वारीसोको, समाज के मूल निवासियोंको अपने मुलभूत हक और अधिकारोंसे दूर रहना पड़ा। हमने कभी सरल विचार नहीं किया कि देश के बाहर के लोगों को यहां की व्यवस्था में न्याय है, हमें क्यों नहीं? अगर मुठ्ठीभर लोगों की भाषा को यहां संवैधानिक संरक्षण मिलता है, तो हम अपने बहुसंख्यक एकभाषी लोगोंकी मातृभाषा प्रताडनाको इस तरह के धोखेसे क्यों बर्दाश्त कर रहे हैं..? यह देखा जा सकता है कि आधुनिक कालमें बंजारा समुदायकी सांघिक मान्यता आखरी सांस गिन राही है l शायद अस्तित्व के अंतिम पाडावमें है l जहां अनुवांशिकता/नस्ल परभी संशोधन किया जाता है, उसी समयतालिकामें हमें गुमनाम करनेकी, समाजकि भाषिक,सामुदायिक पहचान लिप्त कर तोड़नेकी एक छिपी हुई साजिश रचनात्मक तौरपर कार्यरत थी, कार्यरत है। चाहे वह बाहरी धार्मिक समूह हो या सूक्ष्म भाषाई समूह, सभी की संवैधानिकता दबावगुटोकि शक्तिसेही संचालित रही है l दबाव समूह की सफलता अपने समुदाय संवर्धन और विकसनकी दिशा राही है l दुर्दैवसे असंघटीत, असंघीय बंजारा समुदायकी यही कमजोरी हमारा मारक बिंदु है। हमारी एक संस्कृति, एक बोली होने पर भी हम अलग-अलग जातियों में बंटे हुए हैं, हमारी सामुदायिक भाषा जनगणना में दर्ज नहीं है, अगर वक्तपर हम जागृत ना हुये तो आनेवाली बंजारा नस्ल और बंजारा ‘याडी’ हमे कभी क्षमा नही करेगी l जीससे शायद हम कभी एक नहीं हो पाएंगे..! स्मार्ट सिस्टम ने इसे अच्छी तरह से नोट कर लिया है। राष्ट्रीयस्तर पर यदि हम सभी को एकजुट होकर अपने समुदाय को एक छत्र के नीचे लाना है, तो यह बहुत आवश्यक है कि हम सामूहिक रूप से राष्ट्रीय स्तर पर जनजाती अधिकारों की संवैधानिक मान्यता और बंजारा भाषाको संविधानकी आठवी सूचीमें समावेशके प्रानांकित प्रयास करना अनिवार्य है। संज्ञान रहे कि व्यवस्थाने कभी किसीको अर्जी, बिनती,आवेदनोसे किसीको कुछभी नही दियाl संविधानिक मुल्योकोही हथियार बनकर बंजारा समुदाय पर होरहे इस धार्मिक तथा भाषिक अन्याय, शोषण के लिये संविधानके संरक्षक तथा कानून के अभिलेख निर्मक उच्चतम न्यायालय बंजारा समुदाय को न्याय दे पाये, इसपर बाध्य होसके इसलिये जल्दही सुप्रीमकोर्टकी दहलीजपर जानांभी अनिवार्य है l बंजारा समाज के हर क्षेत्रके चाहे कोईभी संघटन, कोईभी दल, हर राज्यके समाजहस्ती और विचारक अपने प्राकृतिक, अंतर्निहित हक और अधिकारोंके लिये एकीकृत होनां समाजसमय कि अंतिम मांग हैl हमारे समाज और भाषा धरोहरकी संविधानीकतही हमारी असल और जनमसिद्ध पहचान है। जीसे हमें हरहालमें पानां है, नहीतो हमारे अस्तित्वकी कोई आधारशिला नही रहेगी। 


               ✍️प्रफुल डि. चव्हाण 

                  बंजारा अस्मिता संघ

Post a Comment

0 Comments