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छत्तीसगड गोर बंजारो का इतिहास


 #बंजारा_समुदाय_बदलाव_और_निरन्तरता_छत्तीसगढ़

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बंजारा शब्द ही अपने आप में एक पूरी जीवन शैली और संस्कृति समेटे हुए है। यह सम्बोधन सुनते ही एक ऐसे व्यक्ति अथवा समुदाय की तस्वीर मस्तिष्क में उभरती है जो घुमक्कड़ ,अस्थाई डेरा डालने वाले ,रंग –बिरंगे चमकीले कपड़े और चांदी के बड़े और भारी गहने पहने छोटी –मोटी चीजों का व्यापार करता है। एक समय भारत ही क्या समूचे विश्व व्यापर में इनका योगदान महत्वपूर्ण रहा है। सुदूर बीहड़ और दुर्गम क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के जीवन में तो इनकी महत्ता और भी अधिक थी। आज जिन वस्तुओं का प्रचलन आदिवासी समुदायों में देखकर हम आश्चर्य चकित होते हैं वे वस्तुऐं आदिवासियों तक इन्हीं घुमक्क्ड़ व्यापारी बंजारों द्वारा पहुँचती रही हैं। कौढ़ियाँ , कांच और चीनी के बने बहुरंगी मनके तथा चांदी जैसी चीजें जिनसे आदिवासी अपने आभूषण और सजावटी उपादान बनाते है इन्ही बंजारों के माध्यम से उन तक पहुँचती रहीं।


छत्तीसगढ़ में बंजारों को नायक कहा जाता है।  बस्तर के माड़िआ  आदिवासी इन्हे लमान-लमानिन भी कहते हैं। लमान जाति की महिलाएँ शरीर पर गोदना गोदने के व्यवसाय से जुड़ी रही हैं। कौड़ी, काँच और हाथी दाँत की विभिन्न श्रृंगारिक वस्तुओं का निर्माण भी इनका प्रमुख व्यवसाय रहा है। काचड़ी, फेटवा, आदि भी बनाते रहे हैं। कोंडागांव क्षेत्र में इन्हे बैपारी कहा जाता है , बंजारों को बैपारी कहे जाने के पीछे कारण यह है कि पहले यही लोग आन्ध्र प्रदेश के सालूर नामक स्थान से बैलों या गधों की पीठ पर नमक लाद कर लाते थे और इस तरह बस्तर के आदिवासियों को नमक की आपूर्ति होती थी। चूँकि यह जाति नमक का व्यापार करती थी। 


बंजारा व्यापारियों द्वारा दुर्गम जंगलों में रहने वाले आदिवासियों तक कौड़ी एवं शीशे जैसी सामग्रियां पहुचतीं रही हैं। 


छत्तीसगढ़ में बंजारों की उपस्थिति अथवा यहाँ के समाजिक जीवन में उनकी उनकी भूमिका के उल्लेख यहाँ प्रचलित मध्ययुगीन कथा –कहानियों में मिलते हैं। यहाँ की लोकप्रिय गाथा चंदा –लोरिक अथवा चंदैनी में एक चरित्र बंजारे का भी है जिसे नायक कहा गया है। वर्तमान में भी बंजारों को छत्तीसगढ़ में नायक कहा जाता है। छत्तीसगढ़ की वाचिक परंपरा में लाखा बंजारा एक सम्मानित और प्रतिष्ठित नायक है।वह वीर और अपनी आन के लिए मर –मिटने वाला है।


छत्तीसगढ़ के इतिहास , सामुदायिक स्मृतियों एवं विश्वदर्शन में बंजारा समुदाय की एक स्थायी छाप परिलक्षित होती है। छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों की अपेक्षा बस्तर जैसे दुर्गम क्षेत्र में यह छाप और भी अधिक गहरी है। नगेसर कइना नामक लोकगाथा छत्तीसगढ़ में गायी जाने वाली एक लोकप्रिय कथा है।देवार एवं वासुदेवा घुमक्कड़ कथ गायक इसे वर्षों से गाते रहे हैं। इस कथा का नायक एक बंजारा , सीताराम नायक , रतनगढ़ का रहने वाला था। छत्तीसगढ़ की लोककथाओं में बंजारा समुदाय का व्यापक उल्लेख उनके यहाँ के सामाजिक जीवन में गहरी पैठ को दर्शाता है।छत्तीसगढ़ में राजस्थान की लोक कथा ढोला - मारु जनसामान्य में अति लोकप्रिय है। कौन जाने यह कथा राजस्थान से निकले घुमक्कड़ बंजारों के साथ छत्तीसगढ़ तक पहुंची हो।


बस्तर को कांकेर से जोड़ने वाले केसकाल घाट का एक भाग बंजारीघाट कहलाता है। और तो और बस्तर के आदिवासियों तथा गैर आदिवासियों के सम्मिलित देवकुल में भी बंजारिन माता एक शक्तिशाली और महत्वपूर्ण देवी है। इसकी पूजा ,जात्रा आदि अन्य देवियों के समान ही की जाती है।


उन्नीसवीं सदी में हुए संत सेवालाल का बंजारा समाज में बड़ा सम्मान है। वर्तमान में यह समुदाय इन्ही संत सेवालाल के नाम के माध्यम से संगठित होने का प्रयास कर रहा है। कोंडागाँव में इसी वर्ष, फरवरी माह में उनकी २७९वीं जयंती का समारोह बड़ी धूम-धाम से मनाया गया था। जिसमे कोंडागांव के बड़े बेन्द्री ग्राम के बंजारा लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस समारोह में संभवतः पहली बार कुछ बुजुर्ग बंजारा महिलाएं अपनी परम्परागत पोषाक और चांदी के मूल बंजारा आभूषण पहन कर निकली थीं। जिन्हे देखकर बस्तर के बंजारों का राजस्थान ,आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र के बंजारों से सम्बन्ध सहज ही चिन्हित किया जा सकता है।


चांदी का बना एक पारम्परिक बंजारा आभूषण दिखती गांव इरिकपाल, बस्तर  की अनीता बंजारा। २०१८  


यूँ तो बंजारे समूचे छत्तीसगढ़ में फैले हुए हैं परन्तु बस्तर में इनकी जनसंख्या अच्छी –खासी है। यहाँ का कोई भी मढ़ई –मेला और हाट बाजार इन की बहुरंगी दुकानों के बिना असंभव है। वास्तव में बस्तर की रंगभरी आदिवासी संस्कृति में इनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। आज गौरसींघ और कौढ़ियों से सुसज्जित शिरस्त्राण पहने माड़िया पुरुष बस्तर और छत्तीसगढ़ की पहचान बन गए हैं ,यह शिरस्त्राण बंजारा समुदाय की स्त्रियां ही सदियों से बना रही हैं।


बंजारा शिल्पियों द्वारा बनाये गए  गौर सींघ शिरस्त्राण पहने  गौर सींघ माड़िया आदिवासी युवक नर्तक दल , बस्तर । २०१८


बस्तर में जगदलपुर और कोंडागांव के आस –पास विभिन्न गांवों में बंजारा परिवार निवास करते हैं। इनमें से इरिकपाल  , बारदा  ,गोटिगुढ़ा , माकड़ी ,कूची , देवकोंगा , बनियागांव ,सिदगांव , कहनापाल , दोरलापाल और तोंगपाल प्रमुख हैं। जगदलपुर से लगभग ३० किलोमीटर दूर तोकापाल के पास इरिकपाल एक छोटा सा गांव है , यहाँ बंजारों के लगभग ७ – ८ परिवार रहते हैं।इनमें से दो बंजारा परिवार बंजारा शिल्पकारी करते हैं , शेष बंजारा खेती और मजदूरी करके जीवनयापन करते हैं।


गांव इरिकपाल, बस्तर में घुमक्क्ड जीवन छोड़कर स्थायी घर बसा चुके बंजारों के घर।  २०१८


छत्तीसगढ़ का वर्तमान बंजारा समुदाय अपनी घुमक्कड़ जिंदगी छोड़ कर पूरी तरह स्थाई जीवन अपना चुका है। इस गांव के लगभग सत्तर वर्षिय जोगा बंजारा कहते हैं, उनके बचपन तक यहाँ बंजारों की घुमक्कड़ व्यापारिक वृति कुछ हद तक जारी थी , उनके दादा व्यापार हेतु उड़ीसा तक जाया करते थे। छत्तीसगढ़ का बंजारा समुदाय, राजस्थान के बंजारों को अपना पूर्वज मानते हैं। वे मानते हैं कि उनके पूर्वज नमक और पशुओं का व्यापर किया करते थे, वे गोदावरी नदी पार कर वर्तमान आंध्रप्रदेश , महाराष्ट्र और कर्नाटक तक जाते थे। जोगा बंजारा के पूर्वजों की बस्तर में लगभग कितनी पीढ़ियां बीत गयी हैं उन्हें पता नहीं। उन्हेंने अपने पुरखों से सुना था कि उनके पूर्वजों के रिश्तेदार कहीं राजस्थान में रहते हैं ,पर वे अब कहाँ होंगे इस की इन्हें और अन्य बंजारा परिवारों को कोई खबर नहीं है।


घुमक्क्ड जीवन छोड़कर स्थायी घर बसा चुका  एक बंजारा परिवार,गांव इरिकपाल, बस्तर । २०१८  


बस्तर के बंजारा आज अपनी वेश-भूषा , भाषा और रीती –रिवाज लगभग छोड़ चुके हैं , उन्होंने स्वयं को बस्तरिया छत्तीसगढ़ी परिवेश में ढाल लिया है । पर उनकी समुदायगत स्मृतियाँ अब भी शेष हैं ,वे स्वयं को राजस्थान और आंध्रप्रदेश के लम्बानी  या लम्बाडी बंजारों की ही एक शाखा मानते हैं। जब इरिकपाल के बंजारों से यह बात चल रही थी तब पूरा बंजारा की बहु अनीता बंजारा अपनी संदूक से बंजारा स्त्रियों द्वारा पहना जाने वाला चांदी का बना पारम्परिक आभूषण निकल लायीं और दिखाकर कहने लगीं अब यह सब  पहनने की आवश्यकता ही नहीं रही। वास्तव में  बंजारों ने अपने को बस्तरिया संस्कृति का अंग बना लिया है। जोगा बंजारा का बेटा सुखदेव तो गांव का सिरहा है ,उस पर देवी आती है।


घुमक्क्ड जीवन छोड़कर स्थायी घर बसा चुका जोगा बंजारा और उसका बेटा सुखदेव जो  गांव का सिरहा है ,गांव इरिकपाल, बस्तर । २०१८  


वर्तमान में अधिकांश बंजारा खेतिहर हैं ,वे मजदूरी करते हैं और कोई छोटा  मोटा काम करके अपनी आजीविका चलाते हैं।

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